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शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

क्रोनी कैपेटेलिस्म या लम्पट पूंजीवादः शब्दों की बाजीगरी से पूंजीवाद को बचाए रखने की कोशिश - -जीवेश प्रभाकर

क्रोनी कैपेटेलिस्म  शब्द आजकल खूब चर्चा में लाया जा रहा है ।हिन्दी में इसे लंपट पूंजीवाद कहा जाने लगा है । जो भी हो हमें इस शब्द  का प्रचार या कहें इस्तेमाल भी बंद करना होगा। सहज, सरल, ग्राह्य, उदार और सर्वोपयोगी  के नाम पर लच्छेदार शब्दावली का उपयोग करते हुए पूंजीवाद को जनता के सामने बेहतर और एकमात्र विकल्प साबित करने के उद्देश्य से इस शब्द को जानबूझकर फैलाने और इस पर बहस की जबरिया कोशिश की जा रही है । देश में विगत 20 वर्षों से जारी अपने प्रयोगों की असफलता से घबराई विश्व पूंजी पॉपुलर टर्मिलॉलॉजी के जरिए पूंजीवाद  को नए सिरे से  स्थापित  करने के  कुत्सित प्रयास में लग गई हैं । इस प्रयास में तमाम बुर्जुआ पार्टियां एकजुट होकर पिल पड़ी हैं। यह समझाने और मनवाने का प्रयास किया जा रहा है कि साहब देश की समस्याओं का हल सिर्फ और सिर्फ पूंजीवाद से ही संभव है हां इसमें लम्पट तत्वों को फिलहाल दूर रखा जा सकता है । इस बात को देश के उद्योगपतियों के सम्मेलन में बड़ी सफाई और चतुराई से उछाला जाता है और फिर सारा कॉर्पोरेट पोषित मीडिया इसके प्रचार में लग जाता है। आज देश में फैले कालेधन और अराजक पूंजी के बोलबाले से युवा वर्ग भौंचक और भ्रमित है । हमें यह समझना होगा कि पूंजीवाद के गर्भ से क्रोनी कैपेटेलिस्म की ही उत्पत्ति संभव हो सकती है। एक बात सीधी तौर पर समझी जानी चाहिए कि बोयेंगे पूंजीवाद तो लंपट ही फलेंगें ।
हम जानते हैं कि पिछले 2 दशक में नवउदार नीतियों और पूंजीवादी प्रयोगों का दौर तेजी से चला । भारत में तो फिर भी इसने 2 दशक पहले ही अपने पैर पसारने शुरु किए मगर शेष विश्व में इसके भी 2 दशक पहले से इसकी कवायद शुरु हो चुकी थी । आज पूरे विश्व में इन नीतियों की असफलता और घातक परिणामों के चलते इसके विरुद्ध आवाज बुलंद है । आज पूंजीवादी ताकतों के सामने अपना अस्तितव कायम रखने की गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है । अधिकतर यूरोपीय, लेटिन अमरीकी देशों के साथ साथ अमरीका में भी पूंजीवाद गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है । हमारे देश में भी एक बहुत बड़ा वर्ग इन नीतियों की विफलता और दुष्परिणामों की आहट से भयभीत होने लगा है , खासकर वो युवा वर्ग जिसने विगत वर्षों में विश्वव्यापी मंदी में अपनी जमीन खसकते देखी है । इस बात का अंदेशा राजनैतिक पार्टियों को भी हो चुका है और इसीलिए वे पूंजीवाद के मेकओव्हर में लग गई हैं । क्रोनी कैपेटेलिस्म की चर्चा इन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा है । ये तो वही बात हुई कि साहब कातिल और डाकू नहीं चलेंगे मगर उठाईगीर से क्या परहेज। अपनी लच्छेदार बयानबाजी और वाकपटुता से ये जनता को लुभाना चाहते हैं  हमें इन मक्कारों के शब्दजाल से बचना होगा और इनकी कुटिल चालों को समझना होगा । 
9वें दशक के अंतिम वर्षों में जब सोवियत संघ टूटा तो पूरे पूंजीवादी देशों ने अपनी सफलता का जश्न बड़े धूमधाम से मनाया था । एक बात गौर करने वाली है कि जब सोवियत संघ का पतन हुआ तो पूंजीवादी ताकतों का अनुमान था कि भारत भी इससे अछूता न रहेगा मगर उस वक्त भारत में इसका प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा और वाम दल सशक्त होकर उभरे । भारत में तब वामपंथी पार्टियों  और दक्षिण पंथी पार्टी भाजपा के सहयोग से व्ही. पी. सिंह की सरकार बनी हालांकि वो ज्यादा दिन नहीं चल सकी ।इसके बाद चंद्रशेखर की सरकार भी गिरा दी गई, फिर हुए मध्यावधि चुनाव में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई । चुनाव में हालांकि कॉंग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला मगर वो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और नरसिंम्हा राव प्रधान मंत्री बने तथा वर्तमान प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पहली बार वित्त मंत्री बनाए गए ।  ये देश के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ । बस इसके बाद देश में नवउदार और बाजारवाद ने तेजी से पैर पसारने शुरु किए ।
इन सबके वावजूद वामपंथी सोच देश में अपना अस्तित्व कायम रखने में कामयाब हो रही थी हालांकि इसका प्रभाव काफी सीमित रहा मगर नवउदार और बाजार की ताकतें इसे पूरी तरह समाप्त करने के अपने पूर्व संकल्प पर दृढ़ थी और हैं अतः उस वक्त इन ताकतों ने एनजीओकरण का खतरनाक खेल खेला जिसने सबसे पहले और सबसे ज्यादा वामपंथी कॉडर तो समाहित किया गया । हालांकि एनजीओकरण की प्रक्रिया इसके भी काफी पहले से चल रही थी मगर इतनी व्यापक और सुलभ नहीं थी। विश्व बैंक और आईएमएफ के साथ मिलकर दिए जा रहे कर्जों की शर्तों में एनजीओ की भागेदारी सुनिश्चित करवाई गई । इस एनजीओकरण का सबसे बड़ा खामियाजा वाम दलों को भुगतना पड़ा जिनका एक बड़ा वर्ग इसकी भेंट चढ़ गया । बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में हालांकि एक बार ऐसा मौका आया था जब वामपंथियों को केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिला मगर हमेशा की तरह ऐतिहासिक भूल करते हुए उन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए । ये वामपंथ के लिए तो कम मगर देश के लिए काफी नुकसानदायी साबित हुआ।  गौर करने वाली बात ये है कि इसके साथ साथ कश्मीर में आतंकवाद और देश में कट्टरपंथी ताकतों का उभार भी उसी तेजी से हुआ । शायद इसलिए कि नौजवानो का ध्यान पूंजीवाद के इस फैलाव और इसके दुष्परिणामों की ओर न जा पाए ।         

आज जब पूंजीवादी ताकतें नई नई शब्दावली और विभिन्न दांवपेंचों के जरिए एकजुट होकर अपना वर्चस्व बचाने में लगी हुई हैं हमें सावधान रहने की जरूरत है । आज कॉर्पोरेट पोषित मीडिया से पूरा जनपक्ष या कहें वामपंथी सोच रखने वाली पार्टियां गायब कर दी गई हैं । इस षड़यंत्र के तहत चे प्रचारित किया जा रहा है कि वामपंथ अब हाशिए से भी बाहर है । हालांकि इस स्थिति के लिए वामदल भी उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वे आमजन से काफी दूर जा चुके हैं और अपना जन आंदोलन की प्रवृत्ति से भटककर कमरों और कैमरों में कैद हो गए हैं। फिर भी आमजन में वाम पक्ष को लेकर उम्मीदें अभी जिंदा हैं जो विकल्प के रूप में उनकी महती भूमिका के इंतजार में हैं ।