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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

सांस्कृतिक सत्याग्रह है यह रचनाकारों का, फासिस्म के खिलाफ

संकट सचमुच गंभीर और बड़ा ही है ।बड़े बड़े विद्वान रचनाकार , जो मेरे पसंदीदा रचनाकारों में शुमार रहे हैं, अपने सम्मान और पुरस्कार लौटा रहे हैं । मुझ जैसै थोड़ा बहुत पढ़ने वाले भी अब इसे महसूस करने लगे हैं । 
एक लोकतांत्रिक प्रणाली में , जो शायद अभी थोड़ी बहुत बाकी है , बौद्धिक प्रतिरोध का यह एक बेहतरीन तरीका है । इसे सांस्कृतिक सत्याग्रह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । विरोध का स्वप्रेरित निजि औजार , जिसे गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का नाम दिया था । आज इस दौर में रचनाकार इसे बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं ।
फासिस्म के बढ़ते खतरों के खिलाफ इस बड़ी तादात में रचनाकारों का विरोध स्वरूप राष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान लौटाने की पहल संभवतः भारत के इतिहास में पहली बार सामने आ रही है । मैं इतिहास उतना नहीं जानता मगर संभवतः आपातकाल में भी ऐसी बेचैनी और खिलाफत नहीं देखी गई ।
हालांकि एक मंत्री ने इस पर भी सवाल उठाते हुए इसे सुनियोजित षड़यंत्र करार देने की कोशिश की है जो उनकी व उनकी पार्टी की बौखलाहट को प्रदर्शित करती है । मगर निश्चित रूप से ये तमाम पूर्वाग्रहों दुराग्रहों से इतर चेतन मस्तिष्क से लिया गया एक विवेकपूर्ण व साहसिक फैसला है जो भीतरी करंट की तरह सभी बुद्धिजीवीयों में पिछले काफी समय से कुलबुला रहा था जो उदय प्रकाश जी ( कम से कम हिन्दी में तो ) की एक चिंगारी से फट पड़ा । ज़रूरत इस बात की है कि ये जज्बा बरकरार रहे । कुछ विघ्नसंतोषी और विध्वंसक तत्व भी हैं इसी जमात में जो भावनाओं और अहं भड़काकर या अलग अलग तरीकों से इस मुहिम को नेस्तनाबूद करने में लगे हैं । आप लोगों को इससे सावधान रहना होगा।
कुछ लोग जो हिन्दी लेखकों को कमतर और उनकी जनस्वीकृति को न्यूनतम आंकते हैं वे अभी इसे बहुत हल्के में ले रहे हैं मगर इसका असर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होगा । एक सुखद आश्चर्य की बात ये है कि हाल के दिनों में पाठक वर्ग , बहुत छोटा ही सही , भी रचनाकारों के इस प्रतिरोध में खुद को शामिल समझने लगा है । हालांकि उसके पास अभिव्यक्ति का कोई सशक्त माध्यम नहीं है मगर आपस में रचनाकारों के इस प्रतिरोध की चर्चा होना ही अपने आप में समर्थन का परिचायक है और साथ साथ एक सकारात्मक बदलाव का प्रतीक भी होता जा रहा है
बकौल साहिर बस इतना ही कह सकते हैं...
ले दे के अपने पास,
फकत इक नज़र तो है
क्यों देखें ज़िंदगी को
किसी की नज़र से हम

जीवेश प्रभाकर

सोमवार, 25 मई 2015

LONG LIVE IPTA, The Cultural Revolution _-25 मई

25 मई ः भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा) का स्थापना दिवस
LONG LIVE IPTA, The Cultural Revolution

आज भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा का स्थापना दिवस है । औपचारिक रूप से आज ही के दिन 25 मई 1943 को औपनीवेशीकरण, फासीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ  स्थापित बंबई (आज की मुंबई) में इप्टा की स्थापना हुई थी । उल्लेखनीय है कि इप्टा की स्थापना के स्वर्ण  जयंती के अवसर पर भारत सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया था ।  आज की पीढ़ी को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि भारतीय जन नाट्य संघ का नाम मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने रखा था ।   इप्टा ने सन 1942- 43 के दौर में बंगाल के अकाल में अपनी जबरदस्त भूमिका निभाई।
   आज देश भर में इप्टा की लगभग 600 इकाइयां कार्यरत हैं और इनमें से अनेक स्थानो पर इप्टा का स्थापना दिवस मनाया जाता है । छत्तीसगढ़ की भिलाई, रायगढ़ डोंगरगढ़  की इकाइयों में भी स्थापना दिवस मनाए जाने की खबरें हैं जो सुखद है मगर राजधानी रायपुर में खामोशी होना दुखद है । राजधानी के आयोजन का पूरे प्रदेश में असर होता है ।
           इप्टा शुरूवाती दौर से ही वैचारिक रूप से भारत के वामपंथी आंदोलन से  से जुड़ गई । भारतीय वामपंथी आंदोलन में सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बनी इप्टा से शुरुवाती दौर से ही रंगमंच और फिल्मों की अनेक नामी गिरामी हस्तियां जुड़ीं । जिनमें से कुछ प्रमुख हैं- ए. के. हंगल, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, कृष्ण चंदर, पं. रविशंकर, कैफी आज़मी, हबीब तनवीर, सलिल चौधरी,शैलेन्द्र ,साहिर लुधियानवी,मज़ाज, मख्दूम, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, एम.एस. सथ्यू, शबाना आजमी, फारूख शेख, राजेन्द्र रघुवंशी, जैसे कई नामचीन कलाकार इप्टा से जुड़े रहे । एक समय फिल्म जगत में इप्या से जुड़े कलाकारों का काफी मान सम्मान हुआ करता था । धीरे धीरे पिल्मों के व्यवसायीकरण और फिर बाजारीकरण की अंधी दौड़ के चलते वैचारिकता एवं प्रतिबद्धता कहीं हाशिए पर जाती गई। इसमें इप्टा के आंदोलन का धीमापन  भी उतना ही दोषी रहा।
आजादी के एक लम्बे समय के पश्चात जब 7 वें 8वें दशक में जनआंदोलन अपने पूरे शबाब पर था, इप्टा ने फिर अहम भूमिका निभाई और देश में जनसरोकारों के प्रति अपनी सांस्कृतिक भूमिका का पूरी जिम्मेदारी से निर्वहन करते हुए देश में अपनी साख जमाई । मगर नौबें दशक की शुरुवात से काफी परिवर्तन महसूस होने लगे । विश्व में साम्यवादी आंदोलनो की गिरावट,एनजीओ के उभार के साथ ही तेजी से एकध्रुवीय  उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का सीधा असर इप्टा पर भी दिखाई देने लगा । जन सरोकारों पर काम करने वाली इप्टा में भी जन की जगह धन के सरोकार ने कई लोगों को विचलित किया । ऐसे में इप्टा से अलग होकर अनेक नाट्य संस्थाएं उभरीं । इनमें से कुछ इप्टा के सिद्धांतों पर चलती रहीं मगर अधिकांश नए ज़माने और बाजारवाद के प्रभाव से खुद को बचा नहीं पाई और वैश्वीकरण के रंग ढंग में घुलमिल गईं ।
इवेन्ट मैनेजमैंट और महोत्सवों के जमाने में जनसरोकारों के प्रति कटिबद्धता वाकई आसान नहीं है मगर इस कठिन दौर में देश के कई हिस्सों में प्रतिबद्ध व जुझारू रंगकर्मियों ने इप्टा की अलख जगाए रखी और इसके जनपक्ष को कायम रखने में अपनी अहम भूमिका निभाही । भी कम ही सही मगर समर्पित और जुझारू साथियों की सक्रिय भागीदारी और मजबूत इरादों के बल पर इप्टा लगातार  संघर्ष व कठिन  दौर से गुजर जूझकर भी अपनी उपस्थिति कायम रखने में कामयाब रही है । इसके लिए कामरेड जितेन्द्र रघुवंशी, जिनकी विगत दिनो बड़ी ही दुर्भाग्यजनक स्थिति में उनकी मृत्यु हो गई , के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता
   आज कई स्थानो पर इप्टा का स्थापना दिवस मनाया जा रहा है । हाल के वर्षों में एक बार फिर इप्टा सक्रिय होकर उबर रही है और कई स्थानो पर युवा वर्ग इप्टा से आकर्षित हो रहा है । यह संतोष की बात है .। आज जब नवपूंजीवाद, नवसा्राज्यवाद और वैश्वीकरण रोज नए रूप में सामने आ रहे हैं   , सांप्रदायिकता  पूरे विश्व में नंगा नाच कर रही है और पूंजीवादी ताकतें पूरे विश्व को युद्ध और अराजकता के भंवर में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं , जन सरोकारों से जुड़ी तमाम संस्थाओं को और सक्रिय व एकजुट होकर संघर्ष करने की आवश्यकता है । ऐसे दौर में इप्टा की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है ।
हम आशा करते हैं कि विपरीत परिस्थितियों और संघर्ष के इस दौर में भी इप्टा अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता कायम रखते हुए जनसरोकार के प्रति समर्पित रहेगी और लगातार वैज्ञानिक व सांस्कृतिक सोच विकसित करती रहेगी ।
(जीवेश प्रभाकर)

बुधवार, 18 मार्च 2015

रायपुर टॉकीज प्रस्तुति

रायपुर टॉकीज का आयोजन---- सरोकार का सिनेमा....
आगामी 8- 9 अप्रैल को वृंदावन हॉल, रायपुर में....
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

कामरेड गोविंद पानसारे को लाल सलाम ...........

मगर उनका ज़स्बा और विचारधारा अजर अमर है कामरेड मरते नहीं हैं दुश्मन ये जान ले .....

कामरेड गोविंद पानसारे को लाल सलाम ...........

गोलियों से तेज चलते हैं विचार
मैं घिरा हुआ हूं
असंख्य आतताइयों से
जो भून देना चाहते हैं मुझे
पहले ही वार में ,
बारूद के असीमित जखीरे के मुकाबिल
विचारों से लैस हूं मैं,यथासंभव ।
जंग जारी है
विचार और औजार की
हर मोर्चे पर
सदियों से अनवरत,असमाप्य ।
मैं जानता हूं , कि ऊ र्जा
हुए जाते हैं विचार ,और
कहीं ज्यादा भयभीत हुए जाते हैं वो,
जो छलनी कर देना चाहते हैं मुझे ।
पर मैं आश्वस्त हूं
कि ऊर्जा अविनाशी है, और
गोलियों से तेज चलते हैं विचार ।
जीवेश प्रभाकर..

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

हाल- फिलहाल--- जीवेश प्रभाकर


तमाम व्यस्तताओं और नियमित झंझावतों से जूझते, हर साल की तरह यह साल भी निकल जाता मगर साल के मध्य में हुए आम चुनाव ने वर्ष 2014 की महत्ता बढ़ा दी । 30 वर्षों के पश्चात देश में किसी एक राजनैतिक दल ने केन्द्र में अपना स्पष्ट बहुतमत हासिल किया यह तो विशेष बात है ही मगर उससे भी यादा चौकानेवाली बात यह है कि देश के दो तिहाई मतदाओं की खिलाफत के बावजूद 30 प्रतिशत मत प्राप्त कर भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया । लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गई सरकार सभी को मान्य होनी ही चाहिए । कांग्रेसइतिहास में  अपने सबसे निम्नतम स्तर पर है और जनता में कांग्रेस को लेकर अब तक नाराजगी है । विगत 10 वर्षों से सत्ता में काबिज काँग्रेस सरकार आम जनता से यादा कॉर्पोरेट की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी ।वैश्वीकरण और उदारीकरण की रफ्तार कम होने से पूरा कॉर्पोरेट जगत नाराज था जिसका खामियाजा कॉग्रेस को भुगतना पड़ा ।
      अब भारतीय जनता पार्टी सत्ता मे ंहै और विगत 6महीने के कार्यकाल से  ये  कॉग्रेसों की ही नीतियों को आगे बढ़ा रही है । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कॉग्रेस की जिन नीतियों की भारतीय जनता पार्टी जितनी आलोचना और विरोध करती रही वो सत्ता में आने के पश्चात उन्हीं नीतियों को कड़ाई से लागू करने पर आमादा हो गई है । आम जनता हतभ्रत है । उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया को जिस तेजी से यह सरकार आगे बढ़ा रही है उसे देखते हुए लगता है कि शीघ्र ही देश के तमाम संसाधनों को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा । इन 6 महीनों में न तो संसद ठीक से चल पाई न किसी विधेयक पर चर्चा ही हो सकी मगर मौजूदा सरकार सभी सुधारों को अध्यादेश के जरिए लागू करने पर आमादा हो गई है । बीमा विधेयक हो या कोल विधेयक हर क्षेत्र में सरकार अध्यादेश लाकर हर क्षेत्र में कॉर्पोरेट के दबाव में दिखलाई दे रही है । कोल क्षेत्र में लगभग 35 वर्षों के पश्चात जबरदस्त हड़ताल शुरू हुई है इसका क्या नतीजा होगा यह आने वाला वक्त बताएगा ।
      इधर नए साल में छत्तीसगढ़ में विगत 11 वर्षों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को निकाय चुनावों में जबरदस्त झटका लगा है । प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह  के लिये निकाय चुनावों के परिणाम चिन्ताजनक हैं । चुनाव पूर्व प्रदेश से काँग्रेस का सफाया कर देने का दावा खोखला साबित हुआ । दूसरी ओर  काँग्रेस केदिग्गज नेता अजीत जोगी के लिये भी ये परिणाम कम चौंकाने वाले नहीं है । चुनाव के दौरान अजीत जोगी ने कांग्रेस प्रचार से खुद को दूर कर लिया था । हालांकि अब वे कह रहे हैं कि उन्होंने बिलासपुर से खुद को हटाया था मगर यह सच नहीं है । कांग्रेस के लिये यह चुनाव काफी दिनों बाद बहार की तरह आए हैं । प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव के लिए यह काफी राहत की बात है कि जब पूरे देश में काँग्रेस का जनाधार कम हुआ है वही छत्तीसगढ़ में गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव के पश्चात काँग्रेस की पकड़ मजबूत हुई । इसे दोनों ही नेताओं की अपनी समझ और तालमेल का परिणाम कहा जा सक ता है । देखने वाली बात ये है कि वे इसे आगे कितना साधे रख पाते हैं । चूंकि पंचायत चुनावों के पश्चात आगामी 4 वर्षों तक कोई चुनाव नहीं होने वाले तो कांग्रेस के लिए इन चार वर्षों तक यह उत्साह व तालमेल बनाए रखना चुनौती होगी । हाल के महीनों में काँग्रेस ने पूरी एकजुटता में जनाहित के मुद्दों को उछालकर आम जनता में अपनी पैठ बनाने में कामयबी हासिल की है । जिसे लगातार जारी रखने की आवश्यकता होगी । सबसे चौकाने वाले परिणाम बिलासपुर के कहे जा सकेत है । बिलासपुर में हाल ही में हुए नसबंदी कांड और नवजात शिशुओं की लगातार मौतो ने पूरे प्रदेश को दिलाकर रख दिया और इसी मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में प्रदर्शनों के बल पर जनता में अपनी पैठ बनाई । मगर यह आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। कि बिलासपुर वासियों ने अपने शहर में सिर्फ महापौर बल्कि पार्षदों के रूप में भी बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी को चुनकर एक तरह से लगातार आरोप झेल रहे मंत्री अमर अग्रवाल को क्लीन चिट दे दी है । निश्चित रूप से इन परिणामों के आधार पर अमर अग्रवाल पर किसी तरह की संगठनात्मक कार्यवाही की अपेक्षा संभव नहीं है ।
      भारतीय जनता पार्टी और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को सबसे बड़ा झटका तो राजधानी रायपुर में लगा जहाँ इस बार भी काँग्रेस का मेयर चुनकर आ गया । भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पसंदीदा प्रत्याशी सच्चिदानंद उपासने को काँग्रेस के युवा प्रत्याशी प्रमोद दुबे ने बड़े अन्तर से हराकर राजधानी में एक बार फिर मेयर पद पर काँग्रेस का कब्जा बरकरार रखा । प्रमोद दुबे की जीत निश्चित रूप से उनकी अपनी छवि के कारण ही हुई । चुनाव के दौरान कांटे का मुकाबला होने के कयास लगाए जा रहे थे मगर नतीजों ने तमाम पूर्वानुमानो को ध्वस्त करते हुए प्रमोद दुबे निर्विवाद रूप से मजबूती के साथ विजयी हुए । इस परिणाम को लेकर भारतीय जनता पार्टी में संगठन स्तर पर भीतरघात की आशंका पर मंथन किया जा रहा है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता मगर यह मानना ही होगा कि इस बार काँग्रेस ने एकजुटता का परिचय दिया और संगठित होकर न रायपुर में जीत हासिल की ।
      राजनैतिक गतिविधियों से इतर गत माह सरकार द्वारा राजधानी में रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन किया गया । इस 3 दिवसीय आयोजन में देश भर के साहित्यकारों ने हिस्सा लिया । अन्य महोत्सवों की तरह इस महोत्.व में भीआमंत्रितों को सभी तरह की  सरकारी सुविधाएं दी गईं। साथ ही सभी साहित्यकारों को संभवत: पहली बार मानदेय भी दिया गया । नए रायपुर के पुरखौती मुक्तांगन में आयोजित महोत्सव में कई सत्र आयोजित किए गए । इस महोत्सव की गूंज पूरे देश में रही । कुछ साहित्यकारों की उपस्थिति और कई नामचीन लोगों के न आने की चर्चा काफी दिनो तक होती रही । हालांकि छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों में ऐसे किसी विवाद को बल नहीं मिला मगर राष्ट्रीय स्तर पर इस आयोजन को लेकर लम्बे वाद- विवाद होते रहे और कमोबेश अभी तक जारी है । खैर यह सरकार की अपनी पहल और योजना है जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं है ,क्योंकि  हर निर्वाचित सरकार को अपनी योजनाओं पर अमल का अधिकार है । दूसरी ओर ऐसे महोत्सवों में शामिल होने  या न होने का निर्णय भी साहित्यकार की व्यक्तिगत सोच और समझ का मामला है । उम्मीद है सरकार इस तरह के आयोजन हर वर्ष करती रहेगी ।
      नए साल के आंगाज् ा के साथ ही कई स्मृतियां दिमाग में कौध जाती हैं । हर नए साल में सुप्रसिद्ब रंगकर्मी सफदर हाशमी की शहादत कौंध जाती है । और इस वर्ष सफदर की शहादत को 25 वर्ष हो रहे हैं । इन पच्चीस वर्षो में कट्टरपंथ और असहिष्णुता में लगातार इजाफा होता गया है । अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट बढ़ता ही जा रहा है । हाल ही में फ्रांस में कट्टर मुस्लिम पंथियों ने मीडिया की आजादी या कहे अभियांत्रिकी स्वतंत्रता पर कातिलाना हमला करते हुए संपादक, पत्रकार एवं कार्टूनिस्टों सहित करीब 12 लोगों को बेतहाशा फायरिंग करते हुए मौत के घाट उतार दिया । हमलावर मुस्लिम कट्टरपंथी थे और वे पत्रिका में प्रकाशित कार्टून से खफा थे । एक सभ्य समाज की कल्पना को ऐसे सांप्रदायिक व कट्टरपंथी आतंक के साए में नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं । पूरे विश्व में धार्मिक कट्टरवाद और असहिष्णुता तेजी से पैर पसार रही है । 21 वीं सदी में जहां मानव विकास के नए नए आयाम गढ़े जा रहे हैं, विज्ञान रोजाना ्नई उँचाईयों को छू रहा है वही दूसरी ओर चंद साप्रदायिक, धार्मिक कट्टरपंथी पूरे विश्व व मानव समाज को पुन: अंधे व बर्बर युग की ओर धकेलने के प्रयास में लगे हैं । इस वक्त पूरी सभ्यता दो राहे पर खड़ी है । एक ओर समता व शांति के पक्षधर है जो तादाद में काफी कम है तो दूसरी ओर विशाले प्रतिगामी ताकते पूरी सभ्यता को तहसनहस कर देना चाहती हैं । खतरा सिर्फ सांप्रदायकि ताकतों से नहीं बल्कि आर्थिक ताकतों से भी है जो पूरे विश्व की दबी कुचली गरीब जनता को अंधी खाई में धकेलकर खुद समृद्ध हो जाना चाहती है । चंद मुट्ठी भर कॉपोरेट पूरी दुनिया में 85 प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं । उनकी भूख ख्तम होने की बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है । ऐसे दौर में सभी को एकजुट होकर प्रतिरोध में सामने आना होगा एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए ...