महिला दिवस पर ...
मैं क्या कह सकता हूं ?
..
हर दिन... हर पल संघर्षरत
विश्व की तमाम महिलाओं के नाम....
इरोम शर्मिला की कविता ही सब कहती
है........
कांटों की चूडि़यों जैसी बेडि़यों से
मेरे पैरों को आजाद करो
एक संकरे कमरे में कैद
मेरा कुसूर है
परिंदे के रूप में अवतार लेना
कैदखाने की अंधियारी कोठरी में
कई आवाजें आसपास गूंजती हैं
परिंदों की आवाजों से अलग
खुशी की हंसी नहीं
कोई लोरी नहीं
मां के सीने से छीन लिया गया बच्चा
मां का विलाप
पति से अलग की गई औरत
विधवा की दर्द-भरी चीख
सिपाही के हाथ से लपकता हुआ चीत्कार
आग का एक गोला दीखता है
कयामत का दिन उसके पीछे आता है
विज्ञान की पैदावार से
सुलगाया गया था आग का गोला
जुबानी तजुर्बे की वजह से
ऐन्द्रिकता के दास
हर व्यक्ति समाधि में है
मदहोशी-विचार की दुश्मन
चिंतन का विवेक नष्ट हो चुका है
सोच की कोई प्रयोगशाला नहीं
चेहरे पर मुस्कान और हंसी लिए हुए
पहाडि़यों के सिलसिले के उस पार से आता हुआ यात्री
मेरे विलापों के सिवा कुछ नहीं रहता
देखती हुई आंखें कुछ बचाकर नहीं रखतीं
ताकत खुद को दिखा नहीं सकती
इंसानी जिंदगी बेशकीमती है
इसके पहले कि मेरा जीवन खत्म हो
दो मुझे अंधियारे का उजाला
अमृत बोया जाएगा
अमरत्व का वृक्ष रोपा जाएगा
कृत्रिम पंख लगाकर
धरती के सारे कोने मापे जाएंगे
जीवन और मृत्यु को जोड़ने वाली रेखा के पास
सुबह के गीत गाए जाएंगे
दुनिया के घरेलू काम-काज निपटाए जाएंगे
कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो
मैं किसी और राह पर नहीं जाऊंगी
मेहरबानी करके कांटों की बेडि़यां खोल दो
मुझ पर इल्जाम मत लगाओ
कि मैंने परिंदे के जीवन का अवतार लिया था।
0 इरोम शर्मिला
(विष्णु
खरे द्वारा अंग्रेजी से अनूदित। ‘अनौपचारिका’ अगस्त, 2010 से साभार।)
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