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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

दिल्ली के आगे हिन्दोस्तां और भी है.....


पिछले 2-3 हफ्तों से दिल्ली की राजनीति को लेकर जो अंतहीन, अर्थहीन और तर्कहीन बहस चल रही है और इसके पहले भी लगातार कई मुद्दे जो चैनलों पर उठाए जाते रहे हैं वो तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया की सार्थकता पर कई प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । क्या दिल्ली ही देश है?? यह बात साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि इस बहुभाषी , बहुसंस्कृति और बहुराष्ट्रीय देश में अपनी अपनी सोच और मुद्दे हैं जो उस क्षेत्रविशेष की दिशा तय करते हैं। हां राष्ट्रीय मुद्दे एक हो सकते हैं और उस पर सोच व दिशा भी एक हो सकती है मगर इस परिप्रेक्ष्य में यदि आप राष्ट्रीय चैनल होने का दावा करते हैं तो आपके मुद्दे संकुचित न होकर  व्यापक होने चाहिए साथ ही आपके बहस का फलक विस्तृत होना चाहिए । मैने आज तक किसी भी तथकथित राष्ट्रीय मुद्दों पर दक्षिण, पश्चिम या पूरब का मत नहीं सुना । क्या सिर्फ दिल्ली वालों की राय ही अंतिम ,सर्वमान्य,सर्वस्वीकार्य और पूरे देश की राय मानी जानी चाहिए ?
इसके पहले भी पिछले कई दिनो से या कहें कई वर्षों से दिल्ली का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया राष्ट्रीय होने के नाम पर एक ऊब और वितृष्णा पैदा करने लगा है । जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगाज़ हुआ है तब से तो हद ही हो गई है । सुबह से लेकर रात 12 बजे तक हर आधे घंटे में खबरें ...तेज खबरें और सुपर फास्ट खबरें आती हैं मगर इस आधे घंटे में 10 मिनट में जो खबरों के नाम पर परोसा जाता है वो सिवाय दिल्ली , गाजियाबाद,गुड़गांव, नोएडा या ज्यादा हुआ तो यू पी..बस इसके आगे तथाकथित राष्ष्ट्रीय मीडिया के राष्ट्र की सीमा बढ़ ही नहीं पाती । अरे भई हम गैर दिल्लीवासी भी देश का ही हिस्सा हैं । दिल्ली के आगे हिन्दोस्तॉं और भी है........
      दिल्ली में दो वाहन की टक्कर एक राष्ट्रीय खबर है मगर मिजोरम में पांचवीं बार सरकार बनाना नीचे पट्टी पर चलने से ज्यादा जगह नहीं बना पाता । तलवार दंपत्ति राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है मगर बस्तर में मारे जा रहे निरीह आदिवासियों पर कोई बात नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं ।
            एक राष्ट्रीय चैनल के पास उपलब्ध 24 घंटों में से 24 मिनट भी देश के अन्य राज्यों के मुद्दों को देने के लिए नहीं हैं। इन चैनलों पर बाकी राज्य तभी थोड़ी बहुत जगह पाते हैं जब वहां कोई आतंकी धमाका, भयंकर हादसा हो या कोई सैक्स या आर्थिक स्कैण्डल ।
      ये कहा जा सकता है कि लोग ये सब देखने को बाध्य नहीं हैं क्योंकि सबके हाथ में रीमोट है मगर बात सरोकार और जिम्मेदारियों की है । जब मीडिया राष्ट्रीय सरोकार और चौथे स्तंभ का दंभ भरता है तो इसे इसका दायित्व भी समझना होगा। आप इससे किसी भी बहाने से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं ।
इधर प्रस्तावित नए नियमों के तहत 1 घंटे में 12 मिनट की विज्ञापन सीमा तय की गई है मगर हो रहा है उल्टा, तमाम चैनल एक घंटे में 12 मिनट कार्यक्रम दिखाते हैं और बाकी के 48 मिनट विज्ञापन ।  जब जब भी खबरिया चैनलों पर दिखाए जा रहे विज्ञापनो के अधिनियम लागू करने की बात चलती है इसे हर बार 6-6 माह के लिए आगे बढ़ा दिया जाता है । आखिर क्यों मीडिया तमाम नियम कायदों से खुद को अलग व विशिष्ट करने में अपनी शान समझता है । लोकपाल की सभी बहसों में मीडिया को शामिल करने की चर्चा हंसा मजाक में तबदील कर दी जाती है । आखिर पूरा मीडिया सरकार पोषित ही तो है । 
अब यदि आप  इन राष्ट्रीय चैनलों से दूर रहने की सोचें तो  विडंबना ये है कि क्षेत्रीय चैनल भी इसी ढर्रे पर चल रहे हैं ...वहां भी क्षेत्रीय से ज्यादा दिल्ली की खबरें हैं....आखिर लोग न्यूज चैनलों से भागकर कहां जाएं ....कुछ लोग खेल और मनोरंजन में ठिया बनाने लगे हैं ..... यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है... आप भी आमंत्रित हैं ..।