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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

दिल्ली के आगे हिन्दोस्तां और भी है.....


पिछले 2-3 हफ्तों से दिल्ली की राजनीति को लेकर जो अंतहीन, अर्थहीन और तर्कहीन बहस चल रही है और इसके पहले भी लगातार कई मुद्दे जो चैनलों पर उठाए जाते रहे हैं वो तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया की सार्थकता पर कई प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । क्या दिल्ली ही देश है?? यह बात साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि इस बहुभाषी , बहुसंस्कृति और बहुराष्ट्रीय देश में अपनी अपनी सोच और मुद्दे हैं जो उस क्षेत्रविशेष की दिशा तय करते हैं। हां राष्ट्रीय मुद्दे एक हो सकते हैं और उस पर सोच व दिशा भी एक हो सकती है मगर इस परिप्रेक्ष्य में यदि आप राष्ट्रीय चैनल होने का दावा करते हैं तो आपके मुद्दे संकुचित न होकर  व्यापक होने चाहिए साथ ही आपके बहस का फलक विस्तृत होना चाहिए । मैने आज तक किसी भी तथकथित राष्ट्रीय मुद्दों पर दक्षिण, पश्चिम या पूरब का मत नहीं सुना । क्या सिर्फ दिल्ली वालों की राय ही अंतिम ,सर्वमान्य,सर्वस्वीकार्य और पूरे देश की राय मानी जानी चाहिए ?
इसके पहले भी पिछले कई दिनो से या कहें कई वर्षों से दिल्ली का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया राष्ट्रीय होने के नाम पर एक ऊब और वितृष्णा पैदा करने लगा है । जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगाज़ हुआ है तब से तो हद ही हो गई है । सुबह से लेकर रात 12 बजे तक हर आधे घंटे में खबरें ...तेज खबरें और सुपर फास्ट खबरें आती हैं मगर इस आधे घंटे में 10 मिनट में जो खबरों के नाम पर परोसा जाता है वो सिवाय दिल्ली , गाजियाबाद,गुड़गांव, नोएडा या ज्यादा हुआ तो यू पी..बस इसके आगे तथाकथित राष्ष्ट्रीय मीडिया के राष्ट्र की सीमा बढ़ ही नहीं पाती । अरे भई हम गैर दिल्लीवासी भी देश का ही हिस्सा हैं । दिल्ली के आगे हिन्दोस्तॉं और भी है........
      दिल्ली में दो वाहन की टक्कर एक राष्ट्रीय खबर है मगर मिजोरम में पांचवीं बार सरकार बनाना नीचे पट्टी पर चलने से ज्यादा जगह नहीं बना पाता । तलवार दंपत्ति राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है मगर बस्तर में मारे जा रहे निरीह आदिवासियों पर कोई बात नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं ।
            एक राष्ट्रीय चैनल के पास उपलब्ध 24 घंटों में से 24 मिनट भी देश के अन्य राज्यों के मुद्दों को देने के लिए नहीं हैं। इन चैनलों पर बाकी राज्य तभी थोड़ी बहुत जगह पाते हैं जब वहां कोई आतंकी धमाका, भयंकर हादसा हो या कोई सैक्स या आर्थिक स्कैण्डल ।
      ये कहा जा सकता है कि लोग ये सब देखने को बाध्य नहीं हैं क्योंकि सबके हाथ में रीमोट है मगर बात सरोकार और जिम्मेदारियों की है । जब मीडिया राष्ट्रीय सरोकार और चौथे स्तंभ का दंभ भरता है तो इसे इसका दायित्व भी समझना होगा। आप इससे किसी भी बहाने से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं ।
इधर प्रस्तावित नए नियमों के तहत 1 घंटे में 12 मिनट की विज्ञापन सीमा तय की गई है मगर हो रहा है उल्टा, तमाम चैनल एक घंटे में 12 मिनट कार्यक्रम दिखाते हैं और बाकी के 48 मिनट विज्ञापन ।  जब जब भी खबरिया चैनलों पर दिखाए जा रहे विज्ञापनो के अधिनियम लागू करने की बात चलती है इसे हर बार 6-6 माह के लिए आगे बढ़ा दिया जाता है । आखिर क्यों मीडिया तमाम नियम कायदों से खुद को अलग व विशिष्ट करने में अपनी शान समझता है । लोकपाल की सभी बहसों में मीडिया को शामिल करने की चर्चा हंसा मजाक में तबदील कर दी जाती है । आखिर पूरा मीडिया सरकार पोषित ही तो है । 
अब यदि आप  इन राष्ट्रीय चैनलों से दूर रहने की सोचें तो  विडंबना ये है कि क्षेत्रीय चैनल भी इसी ढर्रे पर चल रहे हैं ...वहां भी क्षेत्रीय से ज्यादा दिल्ली की खबरें हैं....आखिर लोग न्यूज चैनलों से भागकर कहां जाएं ....कुछ लोग खेल और मनोरंजन में ठिया बनाने लगे हैं ..... यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है... आप भी आमंत्रित हैं ..।

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

सरकार की आहट
जीवेश प्रभाकर
      बस एक रात का फासला है और कल सारे अनुमानसारे सर्वेक्षण और सट्टे बाजों के भी आंकलन का परिणाम सामने होगा ।  इस बार मतदाताओं ने अपनेर् कत्तव्य निर्वाहन में काफी उत्साह दिखाया है । देश के अन्य 5 रायों में  चुनाव के नतीजे आयेंगे । मगर ज्यादा उत्सुकता व इंतजार अपने अपने प्रदेश को लेकर ही होता है । निश्चित रूप से इस चुनाव में मुकाबला बहुत ही संघर्षपूर्ण व कांटे का है । तमाम आंकलन व अनुमान लगाए जा चुके हैं और अब वास्तविक नतीजे की घड़ी आ चुकी है । धीमे धीमे करीब आने लगी है सरकार की आहट।
      ये रात सबके लिये बड़ी तनावग्रस्त है । वो जो वातानुकुलित कमरों में चैन की नींद सोते हैंइस रात को वे नहीं सो पाते । जो नतीजों के इंतजार में जागते हैं वो तो इससे निजात नहीं पा सक तेमगर कई ऐसे हैं जिनकी आगे की नींद इन परिणामों पर ही निर्भर करती है । ये वे लोग होते हैं जो सरकार पोषित होते हैं । इनका सब कुछ इन परिणामों पर ही निर्भर होता है । ये आज भी सत्ता से लाभ उठा रहे हैं और आगे भी उठाने की जुगत में लगे रहेंगे । इन लोगों के लिये भी आज की रात कत्ल की रात की तरह होती है । ये वे होते हैं जो चुनाव के दौरान अपनी कोई राय नहीं देते बल्कि दूसरों से राय जानने में लगे रहते हैं । इस दौरान ये बड़े समावेशी , मिलनसार और मृदुभाषी हो जाते हैं ।
      कल आने वाले परिणामों से जाने कितनो के गणित गलत हो जायेंगेगड़बड़ा जायेंगेतो जाने कितनो की केमिस्ट्री फिट हो जायेगी । कितने ही इतिहास में चले जायेंगे तो कितनों के नए अध्याय शुरू होंगे । बस एक रात और सारे समीकरण सामने होंगे । इन तमाम तनावों और उहापोह के बीच चैन से सोता मिलेगा वही जिसे पूरे चुनाव के दौरान ईश्वर की तरह चढ़ावा चढ़ाया जाता रहा और जो इन सब चढ़ावों कोसबके चढ़ावों को खुले दिल से चढ़ाता हुआ अपनी मर्जी इ.वी.एम. में दर्ज करा आया है । आज की रात वो बड़े आराम से सो रहा है क्योंकि कल के जश्न में उसे ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है । यह ईश्वर आज की रात बड़े आराम से खुर्राटे भर रहा होगा ।
      वो फूल वालामिठाईवालापटाखे वालाबैंडवाला .. सब तैयार हैं । उन्हें तो बस बजाना हैजीत किसी की भी हो । ये पूरी तरह नई सरकार की तैयारी में अपना योगदान देने बेचैन हैं । ये हर चुनीव में जश्न के सामान होते हैं । जीतने का जश्न खत्म होते ही विजयी प्रत्याशी फर्श से अर्श तक पहुंच जाता हैअगले चुनाव के आते आते विजेताओं की संपत्ति तो 5-10 गुना बढ़ जाती है मगर ये जो इनकी सवारी निकालते हैं कहीं और नीचे धंसते चले जाते हैं । जाने कितने विजय जूलुसों की शान और योगदान के बावजूद आज भी ये वहीं है । उम्मीद और उत्साह से भरी जनता भी अपने कंघों पर इन विजेताओं को सत्ता की दहलीज पर छोड़ती है जहाँ वे भीतर घुसकर जो किवाड़ बंद करते हैं तो फिर ये झरोखों पर ही दर्शन देते हैं । बाद में हम आप इनके दर्शन तक को तरसते रहते हैं। सुरक्षा के नाम पर हथियारबंद कमांडो से ये अपने आप को इतना सुरक्षित कर लेते हैं कि आमजन इनकी छाया तक भी नहीं पहुंच पाता ।  कल तक जो आपके दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े थे ,कल शाम के बाद इनके सुरक्षाकर्मी अपने हाथो से आपको धकियाते मिलेंगे ।
कल परिणाम आने के बाद सभी आपको यही कहते मिलेंगे, ''देखामैंने तो पहले ही कहा था ... ।''  आप ये सुनने के लिये तैयार रहें ।
       अरे मीडिया को तो भूल ही गए ...सबसे वेसब्र तो यही रहता है । बेसब्र इतना कि चुनाव नतीजों के पहले कागजी सरकार बनवा देते हैं और उस पर बहस भी करवा लेते है । ये  सब ओर से फायदे में होता है । सरकार किसी की बनेजीते कोई भी जश्न तो इसे ही मनाना है । चित भी मेरी पट भी मेरी और अंटा भी जेब में । कल  बधाइयोंधन्यवाद से भरे विज्ञापनों के बीच अखबारों में कोई जगह नहीं होगी ।
     चुनाव आयोग इस बार चुनाव नतीजों के बाद भी प्रत्याशी के  खर्च पर निगाह रखेगा । जश्न का खर्च भी प्रत्याशी के खाते में डाला जाएगा । ये क्या बात हुई । चुनाव खतम पैसा हजम । क्या हर प्रत्याशी अपने निर्धारति राशि में से जश्न के लिए पैसा बचाकर रखे । अरे भई क्या हर प्रत्याशी जीत रहा है ? चुनाव आयोग भी बेतुके फरमानो से अपनी छवि खराब करता रहता है । ये बेलगाम नौकरशाही का एक हास्यासपद नमूना है । कानून तो चुनाव में हुए खर्च के लिए है क्या ....
     अब आपसे नई सरकार के गठन के बाद ही बात होगी। तो मिलते हैं नतीजों के बाद.. ।



शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013


संघर्ष के पर्याय

नेल्सन मण्डेला
1918-2013


 सेनानी को सलाम



संग्राम अभी भी जारी है........................ 

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

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अकार का नया अंक-36 अब नेट पर...
पढ़ेंः--
राजकुमार राकेश का आलेखः
ऊगो चावेस और बोलीवारियन क्रान्ति

हमारे समय में शावेज़ एकमात्र ऐसे राजनयिक थे जिन्होंने प्रत्येक स्तर पर खुले रूप से अमेरिका की गतिविधियों को भर्त्सना की थी । उनकी जगह फिलहाल खाली है । यह लेख शावेज़ के जीवन व्यक्तित्व और विचारों के अनेक पक्षों पर रोशनी डालता है । शावेज़ की मृत्यु के तत्काल बाद हम इसे देना चाहते थे, पर इसकी सामग्री जुटाना और फिर लिखना श्रमसाध्य काम था । राजकुमार राकेश ने अध्ययन और तत्परता के साथ इस ज़रूरी लेख को 'अकार' के लिये तैयार किया इसके लिये हम उनके आभारी हैं ।
- प्रियंवद

पूरा पढ़ें....
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शनिवार, 30 नवंबर 2013

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अकार ( वर्तमान अंक-36 )
अकार -36 अब इंटरनेट पर अपलोड--

मुस्लिम रैनेसॉं पर बातचीत की श्रखला -

      'अकार' ने मुस्लिम समाज, धर्म, इतिहास, के प्रख्यात अध्येताओं से बातचीत की एक श्रृंखला शुरू की है । इसमें सबसे पहले प्रो. इरफान हबीब से की गयी विस्तृत विचारोत्तेजक बातचीत प्रस्तुत की जा रही है। उसके बाद प्रो. शम्सुर्रहमान फारूकी, प्रो. शमीम हनफी और पाकिस्तान के कुछ विशिष्ट लोग होंगे । यदि यह बातचीत, बहस आगे बढ़ी तो हम इसे विश्व के अलग अलग हिस्सों में ले जाने का प्रयास करेंगे ।........
पूरा पढ़ें....


जीवेश प्रभाकर
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बुधवार, 14 अगस्त 2013

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ और 
सवाल.....
किसकी है 26 जनवरी...किसका है 15 अगस्त......
तमाम उहापोह के बावजूद ...आज़ादी तो आज़ादी है.....
आओ इसे बेहतर बनाएं....

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

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अकार के वर्तमान अंक 35 में पढ़ें...

पॉल लाफ़ार्ज
मार्क्स की स्मृतियां
बहुत छोटीमात्र 66 पृष्ठों की एक पुरानी पुस्तक अचानक हाथ लगीसम्भवत: 1940 के आस-पास छपी होगी ।'मार्क्स के संस्मरण'।  इसमें दो संस्मरण हैं । पहला पॉल लाफार्ज और दूसरी विलहेम लीबनेख्त का । लाफार्ज के संस्मरण से पता चलता है कि मार्क्स की एक बेटी से उनका विवाह हुआ थालीबनेख्त भी मार्क्स के साथ रहे थे । ये संस्मरण मार्क्स की मृत्यु के तत्काल बाद ही लिखे हुए लगते हैं । यह पुस्तक अब हिन्दी में सामान्यत: नहीं दिखती । ये संस्मरण भी सम्भवत:उपलब्ध नहीं हैं । इन दोनों संस्मरणों में मार्क्स के अंतरंग जीवन के सर्वाधिक प्रामाणिक उल्लेख हैं ।......पूरा पढ़ें...
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मंगलवार, 30 जुलाई 2013


अकार का नया अंक " अकार-35 " प्रकाशित हो गया है साथ ही इस अंक से " अकार" अब नेट पर भी उपलब्ध है ।
 इस अंक में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की दुर्लभ टोपी की जानकारी के साथ ही आज़ाद पर सुधीर विद्यार्थी का आलेख भी है ....
आज़ाद के इतिहास पर धूल की परतें
सुधीर विद्यार्थी 
            वह चन्दशेखर आज़ाद के बलिदान का अर्धशती वर्ष था यानी 1981 का साल। शहादत हुई थी उनकी 27फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रे ड पार्क में। कंपनी बाग का वह सुनसान इलाका उस रोज क्रांतिकारी संग्राम के अनोखे रक्तरंजित अध्याय का साक्षी बना जब 'हिन्दुस्तान  समाजवादी प्रजातंत्र संघका सेनापति ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों और उनके सिपाहियों से घिराअपनी एक पिस्तौल और चंद कारतूसों से अभिमन्यु की भांति संघर्ष करते हुए शहीद हो गया....
पूरा पढ़ने के लिए
आप नीचे लिखे लिंक पर जाकर अकार एवं संगमन की संयुक्त वेबसाइट ' संगमनकार" पर "अकार " मेनू में वर्तमान अंक खंड में जाकर पढ़ सकते हैं ।
एक बार अवश्य देखें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं ।
लिंक---
http://www.sangamankar.com/ 


शनिवार, 20 जुलाई 2013

अकार का नया अंक " अकार-35 " प्रकाशित हो गया है । इस अंक से " अकार" अब नेट पर भी उपलब्ध है । आप नीचे लिखे लिंक पर जाकर अकार एवं संगमन की संयुक्त वेबसाइट ' संगमनकार" पर "अकार " मेनू में नए अंक को पढ़ सकते हैं । एक बार अवश्य देखें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं ।
लिंक---
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सोमवार, 15 जुलाई 2013

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा...


बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा...
कुछ इसी तर्ज़ पर चलाया जा रहा है मोदी का प्रचार ...एक बात तो माननी होगी कि मोदी के प्रचार तंत्र में  संलग्न  प्रोफेशनल्स  अपनी प्रतिभा के बल पर पूरे देश को मोदीमय करने में कामयाब हो रहे हैं......मीडिया तो अपने व्यवसायिक लाभ के चलते  इस प्रचार तंत्र का भागीदार है ही बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मी़डिया तो अभी से पेड न्यूज में लग गया है....जिस तरह पूर्व में निर्मल बाबा के कार्यक्रम फीचर की तरह दिखाए जाते रहे फिर बाद में भंडाफोड़ होने पर अब भी उनका कार्यक्रम दिखाया जा रहा है मगर कोने में प्रमोशनल या स्पॉन्सर्ड का टैग लगा दिया जाता है , यानि देश समाज की सेवा का दंभ भरने वाला मीडिया जिस तरह निर्मल बाबा के पाखंड को एक समय उजागर करने में लगा था वो स्पॉन्सर होने के पश्चात दिखाए जा सकने की श्रेणी में ला दिया गया ,मतलब पैसा फेंको तमाशा देखो...उसी तरह मोदी के तमाम कार्यक्रम भी पैसे फिंकवाकर ही दिखाए जा सकते है.... तो मीडिया तो अपनी रोटी सेक रहा है मगर देश का बौद्धिक वर्ग भी इस मकड़जाल की गिरफ्त में फंसता जा रहा है.... एक एक शब्द ..एक एक कदम बहुत सोचा समझा और सुनियोजित सा है.. सांप्रदायिकता का बुर्का ” .. घूंघट नहीं ..क्यों??? इस तरह पूरी पटकथा जबरदस्त पूर्वानुमान के साथ लिखी जाती है जिससे पूरे देश में मोदी के पक्ष या विपक्ष दोनो में चर्चा का माहौल पैदा हो....हम आप भी इस जाल से बच नहीं  सकते क्योंकि बयानो और हरकतों से  आपको इस हद तक विचलित कर दिया जाता है कि आप प्रतिक्रिया से दूर नहीं भाग सकते....मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम इस अभियान को नजरअंदाज करना शुरु कर दें तो निश्चित रूप से मोदी के प्रचार खेमे में बेचैनी फैलेगी क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य गंभीर बहस की बजाय सनसनी फैलाना ही है....अतः अबसे आगे मोदी की चर्चा पर कुछ विराम लगाकर देखा जाए....कॉंग्रेस से ऐसी उम्मीद बेमानी है ...कॉंग्रेस तो हाल  में बौद्धिक दिवालिएपन के संक्रमण से गुजर रही है....आप लोगों के साथ यह प्रयोग करके देखना चाहता हूं....

मंगलवार, 28 मई 2013

क्या हम सिर्फ बंदूक और बारूद की आवाज ही सुनेंगे ?


क्या हम सिर्फ बंदूक और बारूद की आवाज सुनने के आदी हो गए हैं ?  
बस्तर में घटी दर्दनाक वारदात ने पूरे देश को पहली बार इस तरह झकझोरा है । ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटना न हुई हो , चूंकि इस बार प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कॉग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष , सलवा जुडूम के प्रणेता, चुने हुए विधायक और पूर्व केन्द्रीय मंत्री इस घटना के शिकार हुए इस वजह से घटना राष्ट्रीय स्तर पर बहस की वजह बन गई । चलिए इसी बहाने ही सही पहली बार नक्सल या कहें माओवादी समस्या को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की राह तो खुली । वर्ना तो हर बार राष्ट्रीय चैनलों पर छत्तीसगढ़ की घटनाएं निचली पट्टी से कभी ऊपर नहीं हो पाईं ।
            अब जब चर्चा चली तो लगा कुछ सार्थक बहस होगी. कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आय़ेंगे और नए विचारों सुझावों से कुछ समाधान की गुंजाइश भी निकलेगी । मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । दिल्ली के वातानुकूलित स्टुडियो में बैठकर लगभग सभी लोगों ने बातें तो बड़ी बड़ी कीं मगर सब जमीनी हकीकत और व्यवहारिकता से कोसों दूर रहीं ।
जिस तरह पंडित भक्तों को ईश्वर के आध्यात्मिक अस्तित्व के मायाजाल में उलझाकर उन्हें उसकी लीला में मग्न करता रहता है उसी तरह नक्सली आध्यात्म के कुछ पैरोकार जाने किस बिला पर बहस को तर्क से हटाकर आध्यात्म में तब्दील करने का प्रयास करते रहते हैं ।  नक्सलियों के आध्यात्मिक और दार्शनिक समर्थकों की बातें तो  समझ में ही नहीं आतीं । शायद हम उस लायक न हों , जैसे प्रवचनकार कहता है बच्चा अभी तुम्हें बहुत कुछ सीखना है ...ईश्वर इतनी आसानी से नहीं मिलते...ज्ञान के मार्ग पर चलना तो दूर, तुम जैसे तुच्छ प्राणियों के लिए  इसे खोज पाना भी दुश्कर होगा जब तक कि कोई प्रकाण्ड पंडित तुम्हें न बतलाए.......चैनलों पर जब इन विद्वानों को सुनो तो लगता है हमसा मूर्ख और अज्ञानी तो इस पूरे ब्रह्माण्ड में नहीं है.....हमारा जीवन ही व्यर्थ गया .....हम जहां रहते हैं उसकी समस्याएं भी नहीं समझ पाए...इसके लिए भी हमें दिल्ली पर निर्भर रहना है.....(जो खुद समस्या की जननी है....) धिक्कार है....हमें तो शुक्रगुजार होना चाहिए इन चैनलों पर आने वाले महान विशेषज्ञों का जिन्होंने हमें सत्य से साक्षात्कार कराया....अहोभाग्य......एक्सपर्टजी तुम चंदन हम पानी......वो बताते हैं दिल्ली में बैठकर कि बस्तर की असल समस्या क्या है । कोई सुरक्षा बलों की समस्या, कोई राजनीति कोई अशिक्षा, तो कोई प्रशासनिक तो कोई सामाजिक पहलुओं को समस्या की जड़ बताता नहीं थकता । कोई कहता है वहां विकास नहीं हुआ.....अरे विद्वानों हम पूछते हैं पिछले 65 सालों में 6 महानगरों को छोड़कर विकास हुआ कहां ....??.
कोई कॉर्पोरेट नैक्सस की बात खुलकर नहीं करता ..... कोई 6वीं अनुसूची की बात नहीं करता .... सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या ये मुट्ठीभर हिंसक नक्सली आदिवासियों के मान्य प्रतिनिधि हैं ? वो नक्सियों के तथाकथित आध्यात्मिक गुरु  और दार्शनिक पैरोकार बस्तर में आदिवासियों के विकास के लिए संघर्षरत उन संगठनो से चर्चा की बात क्यों नहीं करते जो आदिवासियों के स्वयं के संगठन है...जिनका नेतृत्व उन्हीं के अपने आदिवासियों के हाथ है.....मगर चूंकि वो लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते हुए अहिंसात्मक तरीका अपनाते हैं इसलिए उन पर किसी की नजर नहीं पड़ती । बस्तर और छत्तीसगढ़ के हर जागरूक नागरिक को मालूम है कि जब ये संगठन अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो इसमें लाखों की तादात में आदिवासी शामिल होते है ...स्वस्फूर्त ...अहिंसात्मक तरीके से....मगर न तो सरकार( केन्द्र और राज्य दोनों), प्रशासन और न ही मीडिया( राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय) इस पर कोई तवज्जो देता है। क्या हम सिर्फ बंदूक और बारूद की आवाज सुनने के आदी हो गए हैं ?  हमें इस बात पर गौर करना होगा और यदि आदिवासियों , विशेषकर बस्तर के लिए कुछ करना है तो आदिवासियों के इस बहुसंख्य अहिंसक समाज को मुख्यधारा में लाकर उन्हें अपनी चर्चा के केन्द्र में लाना होगा ।

रविवार, 19 मई 2013

पूरा देश एक कैसीनो ...

IPL में इस वर्ष भी फिक्सिंग का खुलासा हुआ और सदा की तरह तमाम लाभान्वित वर्ग इसकी लीपापोती में लग गए । आश्र्चर्य होता है जब हर घोटाले पर एक दूसरे को नंगा तक कर देने वाले राजनैतिक दल IPL के मामले पर बड़ी सदी बधी टिप्पणियों के साध मीडिया में आते हैं । पदाधिकारी, आयोजक, फ्रैंचाइसी और  खिलाडियों से लेकर मीडिया तक इस मामले में गजब की चालाकी के साथ पूरे आयोजन को पाक साफ बता व्यक्ति विशेष की नीयत और भागीदारी पर केन्द्रित बहस को प्रयोजित करने लगता है । आखिर कोई और कर भी क्या सकता है....चाहे राजीव शुक्ला हों या अरुण जेटली एस मुद्दे पर दोनो एकमत हो जाते हैं....और हद तो तब है जब सिद्धू जैसे लोग ये तक कह देते हैं कि जब देश की संसद ही पाक साफ नहीं है तो क्या किया जा सकता है....यानि कल को कोई हमारे अड़ोस पड़ोस में चोरी चकारी करे तो वह कह सकता है कि देश में संसद से लेकर क्रिकेट तक में सब चल रहा है तो मुझे क्यों दोषी करार दे रहे हो
    एक बात बिल्कुल साफ है कि पूरा देश एक कैसीनो में तब्दील हो चुका है ...एक खुला कैसीनो....हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि इसके  आयोजन में अंतर्राष्ट्रीय सट्टेबाजों की क्या भूमिका है ...क्योंकि यूरोप में फुटबाल और अमरीका में बास्केटबाल की लीग भी सट्टेबाजों के चंगुल में बुरी तरह फंसी हुई है....हमारे देश में चूंकि क्रिकेट पापुलर है अतः लीग के लिए इसे चुना गया ....यह बात भी गौरतलब है कि शारजाह , जहां "डी".गैंग के साए में क्रिकेट होता रहा , के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय माफिया क्रिकेट के सट्टे के लिए एक उपजाऊ व उर्वर देश की तलाश में था जिसके लिए  भारत जैसे उपयुक्त देश से बेहतर ऐर कौन सी जगह होती.....विश्व चैंपियनशिप में विजय भी संभवतः इसी प्लान का एक अंग था...... आज  बस्तर के कोंटा से लेकर देश की राजधानी, कस्बों और महानगरों में रोज सट्टे के मामले सामने आ रहे हैं...कहीं कोई सटोरियों को पैसे चुकाने अपने ही भाई का अपहरण कर उसका खून कर रहा है तो कहीं कोई अपनी बीबी से मारपीट कर उसके गहने बेचकर सट्टे के खेल में शामिल हो रहा है.....इन सब हकीकत से मुंह फेरे हमारे नेता और मीडिया भी IPL को देश में एक क्रांति की तरह प्रस्तुत करने की साजिश में लगा हुआ है....वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश में भी  सट्टेबाजी को वैधानिक दर्जा मिल जाएगा जिसकी मांग यह कहकर उठाई ही जा रही है कि इसे लीगल कर देने से सरकार को भारी राजस्व मिलेगा और गैरकानूनी सट्टेबाजी पर नकेल कसी जा सकेगी .....अब तो हर मैच संदेहास्पद लगने लगा है और हर खिलाड़ी संदिग्ध......ये आग इतनी जल्दी बुझने वाली नहीं है ....एक नशे की तरह फैलती  इस बुराई पर यदि तत्काल कोई कड़े कदम नहीं ुठाए गए तो इसे रोक पाना असंभव हो जाएगा .

गुरुवार, 9 मई 2013

कर्नाटक चुनाव और मीडिया


कर्नाटक चुनाव और मीडिया
कर्नाटक चुनाव के नतीजे आए और अपेक्षा के अनुरूप कॉंग्रेस जीत गई । यह हालांकि कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमेशा की तरह कॉर्पोरेट पोषित मीडिया एक बार फिर अपनी पूरी ताकत के साथ भाजपा के पक्ष में खड़ा दिखाई दिया मगर हास्यास्पद रूप से ख़ड़ा हुआ ये देखकर जरूर कुछ अटपटा लगा । दरअसल जो नतीजे आए उसकी कल्पना पीडिया ने भी नहीं की थी । कॉंग्रेस के क्लीन स्वीप की भविष्यवाणी जरूर थी मगर मीडिया को उम्मीद थी कि भजपा वोट प्रतिशत के मामले में कुछ राहत पाएगी जिसकी बिला पर मीडिया अपने पोषक आकाओं की लाज बचा ले जाएगा । कर्नाटक के वोट प्रतिशत पर नजर डालें तो इस बार भजपा 2008 की तुलना में  लगभग आधे यानि 17 प्रतिशत  से कुछ ज्यादा पर सिमट गई । येदुरप्पा को किंगमेकर बनाने पर तुले मीडिया को पता होना चाहिए कि येदी की पार्टी को महज 4 % वोट ही मिले और यदि इसे भजपा के साथ जोड़ भी दिया जाए तो भी कुल जमा वोट देवगौड़ा साहब की पार्टी से भी कम होते हैं । सबसे चकित कर देने वाला परिणाम देवगौड़ा की जनता दल सेक्युलर पार्टी के पक्ष में गया जिसे जनता ने भाजपा से ज्यादा प्राथमिकता देते हुए 23 प्रतिशत मत दिया ।  कॉंग्रेस को लगभग 8 फ्रतिशत का लाभ हुआ और उसका वोट प्रतिशत 42 के करीब पहुंच गया । इन सबके बावजूद मीडिया अपनी पूरी ताकत भाजपा को बचाने में लगा रखी । रही बात भाजपा की तो ये साफ है कि भाजपा अपनी लगातार  हार ( हिमाचल, उत्तराखंड, असम, बंगाल ,और झारखंड में छीछालेदर के पश्चात कर्नाटक ) से  मोदी को प्रोजेक्ट करने के अपने इरादे पर काफी पशोपोश में आ गई है क्योंकि तथ्य ये है कि इन सभी राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए मोदी भी गए थे ।.  यह सब देखते हुए इस बात को समझने में ज्यादा परेशानी नहीं है कि चैनल पूरी तरह भाजपा की ओर झुके रहते हैं । जो मीडिया गुजरात के चुनाव को देश के लिए दिशा निर्धारित करने वाला सिद्ध करते नहीं थकता वो कर्नाटक चुनाव को महज प्रदेश तक सीमित कर देने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है । आखिर इस पक्षधरता के पीछे क्या है ? इस तरह की पक्षधरता मीडिया की भूमिका को और संदिग्ध और संदेहास्पद बनाती है ।

रविवार, 5 मई 2013

गांधी पर मार्क्सवादी दृष्टि---ऋषिकेश राय का आलेक



गांधी पर मार्क्सवादी दृष्टि---ऋषिकेश राय 
भारत में समाजवादी बौद्धिकों और प्रतिष्ठानों की भारत और गांधी संबंधी जड़ीभूत मान्यताओं की विसंगतियों को रामविलास शर्मा ने उजागर किया है। गांधी संबंधी अपने उत्तरवर्ती चिंतन में वे भारतीय यथार्थ का वैज्ञानिक विवेचन करते हैं। वे मार्क्सवादी विवेचन पद्धति के अनुसार अपनी स्थापनाओं के तथ्यात्मक आधार की तलाश करते हैं। वे पहले मार्क्सवादी विद्वान हैं, जिन्होंने गांधी वांग्मय का सूक्ष्म और विशद अध्ययन किया है।.....पूरा पढ़ें.....

                                                       www.vikalpvimarsh.in

बुधवार, 1 मई 2013

क्रिकेट टीम की प्रायोजक सहारा और बाकी ....

 भारतीय क्रिकेट टीम की प्रायोजक सहारा ने देश के लगभग सभी समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर सबको जन गण मन गाने का आव्हान किया है....बाह वाह क्या बात है....एक ओर 3 करोड़ लोगों का पैसा खाकर सीनाजोरी करो और दूसरी ओर देशभक्ति का ढोंग..... और वाह रे क्रिकेट खिलाड़ियों ऐसे डिफाल्टर का लोगो लगाकर देश का प्रतिनिधित्व करने में कोई शर्म या संकोच तो दूर भारत रत्न की मांग भी करते रहो....तो क्यों न सहारा को ही भारत रत्न दे दें जो ऐसे महान सपूतों को प्रायोजित कर देश का मान बढा रहा है....  क्या ये उचित है कि करोड़ों लोगों की मेहनत की कमाई के गबन का आरोपी संस्था देश की किसी भी टीम का प्रायोजक बनी रहे.....क्या BCCI को और देश के कर्णधारों को ये दिखाई सुनाई नहीं दे रहा है और अगर दे रहा है तो क्या उनकी मौन सहमति है.....धिक्कार है.......अब तो बस एक ही रास्ता समझ आ रहा है कि पूरे देश में.जहां जहां सहारा का लोगो लगे खिलाड़ी मैदान में उतरे तो लोगों को उनका बहिष्कार  करना चाहिए...

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

.IPL के लिए सब माफ कर दिया

अब तो हद ही दो गई ...आखिर सरकार को जनता के पैसे इस तरह लुटाने का हक कैसे दिया जा सकता है...IPL के लिए सब माफ कर दिया फिर अब चौके छक्कों और हैट्रिक पर सरकारी ईनाम की घोषणा???  आखिर करदाताओं के पैसे से इस तरह का खिलवाड़ ...यह पूरी तरह गैरवाजिब है..तानाशाही है...एक ऐसे मैच के लिए जिसका न तो कोई अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड होता है और न कोई मान्यता ..यह आयोजन पूरी तरह व्यवसायिक है और ऐसे ओयोजन के लिए  कोई लोकतांत्रिक सरकार किस तरह ऐसे ऊलजुलूल फैसले ले सकती है.......कहां है हमारा जागरूक विपक्ष और फेसबुकिया क्रांतिकारी जो केन्द्र सरकार के हर फौसले के खिलाफ जहर उगलते हैं ....धत तेरे की...

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

कोर्ट न्याय के लिए है या दया के लिए ?


क्या संजय दत्त के लिए दिया गया निर्णय  न्याय की अवमानना नहीं है ?
कोर्ट न्याय के लिए है या दया के लिए ?
यदि सुप्रीम कोर्ट ही दया याचिका पर सुनवाई करने लगे तो राष्ट्रपति क्या करेंगे ?
क्या किसी गरीब का स्वास्थ्य फिल्मों में लगे पैसों के सामने कोई अर्थ नहीं रखता ?
ऐसे कई प्रश्न उठ खड़े हुए हैं संजय दत्त के पक्ष में निर्णय आने के बाद......
क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा  संजय दत्त को दी गई रियायत की हर तरह से समीक्षा ,
बहस और चर्चा नहीं होनी चाहिए ?

देखें  कौन कौन चैनल इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट को कटघरे में खड़ा करते हैं ?
या सब  300 करोड़ बचाने की लीपापोती में लग जाते हैं...देखते रहिए

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

समकालीन विमर्श का एक महत्वपूर्ण पोर्टल www.vikalpvimarsh.in


समकालीन विमर्श का एक महत्वपूर्ण पोर्टल

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समकालीन विमर्श का एक महत्वपूर्ण पोर्टल शुरु किया है जिसमें समसामयिक मुद्दों पर सार्थक नए आलेखों के साथ साथ विभिन्न माध्यमों में प्रकाशित स्तरीय आलेखों का साभार प्रकाशन  किया जाता है ।
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संपादक
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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

आज बैसाखी है...ज़रा याद करो कुर्बानी....


ज़रा याद करो कुर्बानी....
आज बैसाखी है और आज हम बेगुनाहों की शहादत को नमन करते हुए अंग्रेजों की क्रूरता को सामने लाना चाहते हैं जो आज तक इस बेरहम हत्याकांड पर माफी तक नहीं मांग सके....

13 अप्रैल 1919 बैसाखी का दिन था और हजारों सिख श्रद्धालु जलियांवाला बाग के पास हरमंदिर साहिब गुरुद्वारे में खालसा पंथ के गठन को याद करने पहुंचे थे. पूजा के बाद श्रद्धालु जलियांवाला बाग में जमा हुए. बाग के चारों ओर ईंट की दीवार बनी है. बाग में एक कुआं भी है. माना जाता है कि वहां 15 से 20 हजार लोग मौजूद थे.अंग्रेजों को जलियांवाला बाग में लोगों का जमा होना संदिग्ध लगा. लोगों को तितर बितर करने के मकसद से अमृतसर में तैनात ब्रिगेडियर जनरल डायर अपने 50 बंदूकधारी सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग पहुंचे. उनके पास मशीन गन वाले टैंक भी थे, लेकिन बाग के संकरे दरवाजे से इन्हें ले जाने में दिक्कत आ रही थी जिस वजह से उन्हें बाहर छोड़ दिया गया. अंदर जनरल डायर ने लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाने का आदेश दिया. दीवार से घिरे बाग से भागने का लोगों के पास चारा नहीं था जिस वजह से कई लोग गोलियों का शिकार बने. बहुत लोग कुएं में कूदकर मारे गए. उस वक्त अंग्रेजी शासन ने मृतकों की संख्या 400 बताई, लेकिन गोलियों के शिकार लोगों की संख्या 2,000 से भी ज्यादा थी....बाद में शहीद उधम सिंह ने इसका बदला लिया...

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013


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आज फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि है...पढ़ें उनकी एक कहानी
नैना जोगिन--- फणीश्वरनाथ 'रेणु'
सो, पिछले ग्यारह वर्षों में रतनी की माँ ने मुँह के जोर से ही पंद्रह एकड़ जमीन 'अरजा' है। पिछवाड़े में लीची के पेड़ हैं, दरवाजे पर नीबू। सूद पर रुपए लगाती है। 'दस पैसा' हाथ में है और घर में अनाज भी। इसलिए अब गाँव की जमींदारिन भी है वही। गाँव के पुराने जमींदार और मालिक जब किसी रैयत पर नाराज होते तो इसी तरह गुस्सा उतारते थे। यानी उसकी बकरी, गाय वगैरह को परती जमीन पर से ही हाँक कर दरवाजे पर ले आते थे और गालियाँ देते, मार-पीट करते और अँगूठे का निशान ले कर ही खुश होते थे।....पूरा पढ़ें..
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मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

चावेज द्वारा 20 सितंबर 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिये गये तीखे अमेरिका विरोधी भाषण के अंश

कल शैतान आया था
चावेज द्वारा 20 सितंबर 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिये गये तीखे अमेरिका विरोधी भाषण के अंश

सबसे पहले मैं सम्मान के साथ आप सब को आमंत्रित करना चाहता हूं, जिन्हें उस पुस्तक को पढ़ने का अवसर नहीं मिला, जिसे हमने पढ़ा है। नोम चॉम्स्की, जो विश्व और अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों में से हैं, उनकी सबसे नयी रचना "हेजेमनी ऑर सरवाइवल?' मुझे लगता है कि अमेरिका में हमारे भाइयों और बहनों को यह किताब सबसे पहले पढ़नी चाहिए क्योंकि खतरा उनके अपने घरों में ही है। शैतान उनके घर में ही है। खुद शैतान उनके घर में है।वह शैतान कल यहां था। कल शैतान यहां, इसी जगह पर मौजूद था। यह मेज, जहां से मैं आपको संबोधित कर रहा हूं, अभी भी गंधक की तरह महक रही है। कल इसी हॉल में अमेरिका के राष्ट्रपति, जिन्हें में "शैतान'कहता हूं, आये थे और इस तरह बात कर रहे थे मानो दुनिया उनकी जागीर हो। अमेरिकी राष्ट्रपति के कल के भाषण का विश्लेषण करने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक की जरूरत होगी।साम्राज्यवाद के एक प्रवक्ता की तरह वे हमें अपने वर्तमान आधिपत्य, शोषण और विश्व के लोगों को लूटने की अपनी युक्ति बताने आये थे। इस पर अल्फ्रेड हिचकॉक की एक अच्छी फिल्म बन सकती है। मैं उसका शीर्षक भी सुझा सकता हूं - "द डेविल्स रेसिपी'। मतलब यह कि अमेरिकी साम्राज्यवाद- जैसा कि चॉम्स्की भी गंभीरता और स्पष्ट रूप से कहते हैं- अपने आधिपत्य की वर्चस्ववादी व्यवस्था को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। हम इसे होने नहीं दे सकते। हम उसकी वैश्विक तानाशाही को स्थापित होने नहीं दे सकते, उसे मजबूत होने नहीं दे सकते। विश्व के उस अत्याचारी राष्ट्रपति का वक्तव्य दंभ और पाखंड से भरा है। यह साम्राज्यवादी पाखंड है, जिसके जरिये वे सभी कुछ नियंत्रित करना चाहते हैं। वे हम पर लोकतांत्रिक मॉडल थोपना चाहते हैं, जिसे उन्होंने खुद बनाया है। कुलीनों का मिथ्या लोकतंत्र। और इससे भी ज्यादा, एक ऐसा लोकतांत्रिक मॉडल, जो विस्फोट, बमबारी, आक्रमण और बंदूक की गोलियों के बल पर थोपा गया है। ऐसा है वह लोकतंत्र! हमें अरस्तू की स्थापनाओं और लोकतंत्र के बारे में बताने वाले आरंभिक यूनानियों की फिर से समीक्षा करनी पड़ेगी और देखना होगा कि आखिर नौसैनिक आक्रमण, हमले, उग्रवाद और बमों से लोकतंत्र का कौन सा मॉडल थोपा जा रहा है।अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसी हॉल में कल कुछ बातें कही थीं। मैं उनका वक्तव्य दुहराता हूं, "आप जहां कहीं भी नजर दौड़ायें, आपको उग्रवादियों की बात सुनने को मिलेंगी जो कहते हैं कि आप हिंसा, आतंक और शहादत से अपनी तकलीफों से छुटकारा पा सकते हैं और अपना आत्मसम्मान हासिल कर सकते हैं।' वे जिधर भी नजर दौड़ाते हैं, उन्हें उग्रवादी ही दिखते हैं। मुझे पता है भाइयो, वे आपको देखते हैं, आपकी चमड़ी के रंग से देखते हैं और सोचते हैं कि आप एक उग्रवादी हैं। रंग के आधार पर ही बोलीविया के सम्मानित राष्ट्रपति एवो मोरालेस, जो कल यहां मौजूद थे, एक उग्रवादी हैं। साम्राज्यवादियों को हर तरफ उग्रवादी ही नजर आते हैं। ऐसा नहीं है कि हम उग्रवादी हैं। हो यह रहा है कि दुनिया अब जाग गयी है। चारों तरफ लोग उठ खड़े हो रहे हैं। मिस्टर साम्राज्यवादी तानाशाह, मुझे लगता है कि आप अपने शेष दिन दुःस्वप्न में ही गुजारेंगे क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि आप जहां कहीं भी नजर दौड़ायेंगे, हम अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े नजर आयेंगे।हां, वे हमें उग्रवादी कहते हैं, क्योंकि हमने विश्व में संपूर्ण स्वतंत्रता की मांग की है, लोगों के बीच समानता और राष्ट्रीय संप्रभुता की गरिमा की मांग की है। हम साम्राज्य के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं, आधिपत्य के मॉडल के खिलाफ खड़े हो रहे हैं।

(सौज. पब्लिक एजेंडा पत्रिका)

मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली मुबारक.....


होली मुबारक.............
नज़ीर अकबराबादी के बिना होली कैसे हो पूरी....

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश-रंग अज़ब गुलकारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की
( नज़ीर अकबराबादी )

सोमवार, 25 मार्च 2013

न्यायपालिका को जवाबदेह होना चाहिए


देश में लोकतंत्र के तीन तो स्तायी स्तंभ हैं....
कार्यपालिका
व्यवस्थापिका
न्यायपालिका

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर तो खुलकर बहस होती है मगर
न्यायपालिका पर क्यों नहीं
जबकि हमारे चीफ जस्टिस के दावेदार तक पर महाभियोग चल चुका है ..
और कई न्यायाधीष हैं जो दूध के धुले नहीं हैं....फैसले हमेशा विवादास्पद होते रहे हैं...

क्या आपको नहीं लगता देश में लोकतंत्र के तीन तो स्तायी स्तंभ हैं....
कार्यपालिका
व्यवस्थापिका
न्यायपालिका

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर तो खुलकर बहस होती है मगर
न्यायपालिका पर क्यों नहीं
जबकि हमारे चीफ जस्टिस के दावेदार तक पर महाभियोग चल चुका है ..
और कई न्यायाधीष हैं जो दूध के धुले नहीं हैं....फैसले हमेशा विवादास्पद होते रहे हैं...

क्या आपको नहीं लगता न्यायपालिका को जवाबदेह होना चाहिए और इसके हर फैसले की खुलकर समीक्षा की जानी चाहिए...
 और इसके हर फैसले की खुलकर समीक्षा की जानी चाहिए...

शनिवार, 23 मार्च 2013

23 मार्च... साझी शहादत


23 मार्च... सांझी शहादत ..
नौजवानो के लिए चिरस्मरणीय दिन...
शहीदों को नमन..


बुधवार, 20 मार्च 2013

कहते हैं आज गौरैया दिवस है...


कहते हैं आज गौरैया दिवस है ...
जब यह कविता लिखी थी तब पता नहीं था..

मंगलवार, 12 मार्च 2013

कविता पोस्टर

कविता पोस्टर

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

महिला दिवस पर ...इरोम शर्मिला की कविता


महिला दिवस पर ...

मैं क्या कह सकता हूं ?
..
हर दिन... हर पल संघर्षरत

विश्व की तमाम महिलाओं के नाम....

इरोम शर्मिला की कविता ही सब कहती है........

कांटों की चूडि़यों जैसी बेडि़यों से
मेरे पैरों को आजाद करो
एक संकरे कमरे में कैद
मेरा कुसूर है
परिंदे के रूप में अवतार लेना

कैदखाने की अंधियारी कोठरी में
कई आवाजें आसपास गूंजती हैं
परिंदों की आवाजों से अलग
खुशी की हंसी नहीं
कोई लोरी नहीं

मां के सीने से छीन लिया गया बच्‍चा
मां का विलाप
पति से अलग की गई औरत
विधवा की दर्द-भरी चीख
सिपाही के हाथ से लपकता हुआ चीत्‍कार

आग का एक गोला दीखता है
कयामत का दिन उसके पीछे आता है
विज्ञान की पैदावार से
सुलगाया गया था आग का गोला
जुबानी तजुर्बे की वजह से

ऐन्द्रिकता के दास
हर व्‍यक्ति समाधि में है
मदहोशी-विचार की दुश्‍मन
चिंतन का विवेक नष्‍ट हो चुका है
सोच की कोई प्रयोगशाला नहीं

चेहरे पर मुस्‍कान और हंसी लिए हुए
पहाडि़यों के सिलसिले के उस पार से आता हुआ यात्री
मेरे विलापों के सिवा कुछ नहीं रहता
देखती हुई आंखें कुछ बचाकर नहीं रखतीं
ताकत खुद को दिखा नहीं सकती

इंसानी जिंदगी बेशकीमती है
इसके पहले कि मेरा जीवन खत्‍म हो
दो मुझे अंधियारे का उजाला
अमृत बोया जाएगा
अमरत्‍व का वृक्ष रोपा जाएगा

कृत्रिम पंख लगाकर
धरती के सारे कोने मापे जाएंगे
जीवन और मृत्‍यु को जोड़ने वाली रेखा के पास
सुबह के गीत गाए जाएंगे
दुनिया के घरेलू काम-काज निपटाए जाएंगे

कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो
मैं किसी और राह पर नहीं जाऊंगी
मेहरबानी करके कांटों की बेडि़यां खोल दो
मुझ पर इल्‍जाम मत लगाओ
कि मैंने परिंदे के जीवन का अवतार लिया था।
                         0 इरोम शर्मिला

(विष्‍णु खरे द्वारा अंग्रेजी से अनूदित। ‘अनौपचारिका’ अगस्‍त, 2010 से साभार।)

गुरुवार, 7 मार्च 2013

एक कहानी- शरणदाता' - अज्ञेय

www.vikalpvimarsh.in में आज अज्ञेय के जन्मजिवस पर पढ़ें उनकी एक रचना...
शरणदाता' - अज्ञेय
रंफीकुद्दीन का आश्वासन पाकर देविन्दरलाल रह गये। तब यह तय हुआ कि अगर खुदा न करे कोई खतरे की बात हुई ही, तो रंफीकुद्दीन उन्हें पहले खबर भी कर देंगे और हिंफाजत का इंतजाम भी कर देंगेचाहे जैसे हो। देविन्दरलाल की स्त्री तो कुछ दिन पहले ही जालन्धर मायके गयी हुई थी, उसे लिख दिया गया कि अभी न आये, वहीं रहे। रह गये देविन्दर और उनका पहाड़िया नौकर सन्तू। किन्तु यह व्यवस्था बहुत दिन नहीं चली। चौथे ही दिन सवेरे उठकर उन्होंने देखा, सन्तू भाग गया है।...पूरी पढ़ें..

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